सुरेन्द्र चतुर्वेदी, नई दिल्ली, Nit:
मोदी तेरी सारी बात सही हैं, लेकिन नाला यहीं बहेगा…खूंटा यहीं गड़ेगा। तेरे हजार के बारह सौ हों तो हो जाएं, और हम भले ही दहाई से इकाई पर जा पहुंचें परंतु अपनी जिद से नहीं हटेंगे।
एक राष्ट्रीय पार्टी के अंतर्राष्ट्रीय स्तरीय ”कानूनजीवी” नेता ने पहले दिन कहा कि नागरिकता कानून सभी राज्य सरकारों को मानना पड़ेगा क्योंकि उसे न मानना असंवैधानिक होगा।
उनकी हां में हां मिलाते हुए उनके एक ”पार्टीबंध भाई” ने इसकी पुष्टि की और बोला कि हां…नागरिकता कानून तो देश की सभी राज्य सरकारों को लागू करना होगा अन्यथा एक गलत परंपरा कायम हो जाएगी।
इसी पार्टी के एक तीसरे ”हमपेशा” नेता ने भी कुछ इसी प्रकार अपने विचार व्यक्त किए।
चंद घंटों में घटी इस अप्रत्याशित घटना को सोशल मीडिया के भक्तों की भीड़ ने लपक लिया।
इस भीड़ में कुछ इनके भक्त थे तो कुछ उनके। दोनों किस्म के भक्तों ने लानत-मलामत भेजीं तो पहले वाले ”कानूनजीवी” ने शर्म-ओ-हया त्यागकर नया स्टेटमेंट जारी किया ताकि ”घर और घाट” कहीं तो ठौर बना रहे।
इस बार उन्होंने कहा कि नागरिकता कानून को लेकर दिए गए मैं अपने ”पहले वाले आखिरी बयान” पर ही टिका हुआ हूं लेकिन यह बताना चाहता हूं कि विरोध हमारा जारी रहेगा।
इस ”मैं” से ”हम” तक के डेढ़ लाइना सफर में उन्होंने साफ कर दिया कि ”पार्टी लाइन” पर बने रहना है, चाहे मोदी कितना ही सही क्यों न हो।
ये महाशय अभी पूरी तरह चुप भी नहीं हुए थे कि इन्हीं की पार्टी के एक पूर्व उप-महामहिम बीच में कूदते हुए चीखे….खामोश।
इन सज्जन ने कानूनविदों को ज्ञान बांटते हुए कहा, जब संसद खराब कानून बनाती है तो उसका अंत अदालत में होता है।
दो बार संवैधानिक पद पर रहकर कानून बनाने वालों और कानूनविदों को शायद यह सज्जन बताना चाहते थे कि संसद में कानून बना लेने से कुछ नहीं होता, आखिरी सलाम अदालत ही भेजती है।
जैसी जिसकी सोच। इन पूर्व उप-महामहिम की अपनी सोच है। जैसे कोई फ्रेंच कट दाढ़ी रख लेने से ”फ्रेंच” नहीं हो जाता, उसी प्रकार कोई पूर्व महामहिम या उप-महामहिम के पद पर रह लेने भर से संविधान विशेषज्ञ नहीं हो सकता क्योंकि अब तक राजनीति के संत-महंतों, महामंडलेश्वरों, मुल्ला-मौलवियों तथा सूफियों से जो सुना व समझा है, उसके अनुसार लोकतंत्र में सबका काम निर्धारित है।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों अपने-अपने दायरे में रहकर लोकतांत्रिक ढांचे के अनुसार काम करती रहती हैं।
सुना है कि बूढ़े तोतों को ”राम-राम” कहना नहीं सिखाया जा सकता। ऐसे में इन महाशय को कौन समझाए कि अदालत किसी कानून के गैर संवैधानिक पक्ष को तो उजागर कर सकती है लेकिन कानून बना नहीं सकती।
नागरिक संसोधन कानून जिसके संदर्भ में आज जो ऐसे-वैसे और जैसे-तैसे लोग ज्ञान बघार रहे हैं उनके बुद्धि-विवेक पर गौर फरमाएं तो लगता है कि मोदी नाम केवलम।
जैसे मोदी ‘सरकार’ ने संसद के दोनों सदनों में कानून पास नहीं कराया बल्कि वो उसे अहमदाबाद के मानिक चौक की दुकान से खरीद कर ले आए।
अरे भाई, जिस समय संसद के अंदर कानून पर तर्क-वितर्क और कुतर्कों का भी दौर चल रहा था, तब क्या आप जैसे लोग अफीम की पीनक में थे। जिस कुर्सी पर कभी आप बैठा करते थे, उसी कुर्सी पर आज बेशक कोई और बैठा है परंतु कुर्सी तो वही है। जिस संसद ने आपको उप-महामहिम बनाया, वो संसद भी वही है। फिर ऐसा कैसे कि कुर्सी छूटते ही आप न संसद की इज्जत कर रहे हैं, और न कुर्सी की।
सच तो यह है कि आप दोनों की इज्जत से खेलने की कोशिश कर रहे हैं।
माना कि अदालतें बहुत कुछ तय करती हैं परंतु यह कहना जंचा नहीं कि संसद खराब कानून बनाती है तो उसका ‘अंत’ अदालत में होता है।
एक जानवर होता है मेंढ़ा। कहते हैं उसे कभी बांधा नहीं जाता, सिर्फ दीवार की ओर मुंह करके खड़ा कर दिया जाता है क्योंकि वह दाएं-बाएं देखना नहीं जानता।
कभी अपनी स्थिति से खीजता भी है तो सामने दीवार पर सीगें ठोकता रहता है क्योंकि उसकी बुद्धि उसे मुड़कर देखने की इजाजत नहीं देती। दलगत राजनीति का लगभग यही आलम है।
दलगत राजनीति यूं प्रत्यक्ष रूप से किसी को खूंटे से नहीं बांधती परंतु उसकी बुद्धि संभवत: इतनी कुंद कर देती है कि उसके सोचने-समझने की शक्ति पूरी तरह क्षीण हो जाती है।
और भाई लोगो… यदि अदालत में ही सीएए का अंत होना है, तो यार तुम सड़क पर क्या कर रहे हो। क्यों हंगामा काट रखा है। क्यों रास्ते रोक रखे हैं। क्यों हर दिन एक नया शगूफ़ा छोड़ रहे हो। मोदी पर न सही, अदालत पर ही भरोसा रखो।
ये क्या कि जितने मुंह, उतनी बातें। एक मुंह से कहते हो कि कानून बना है तो मानना पड़ेगा, थोड़ी देर में दूसरे मुंह से कह देते हो कि सारी बातें सही हैं लेकिन नाला यहीं बहेगा…खूंटा यहीं गड़ेगा।
अपनी न सही अपने पेशे और पद की गरिमा का ही ध्यान रख लो अन्यथा मोदी का अंधा विरोध ”घर तथा घाट” दोनों के लायक नहीं छोड़ेगा।
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